सांगलिया धूणि का सम्पूर्ण परिचय
वैसे तो अखिल भारतीय सांगलिया पीठ किसी के परिचय की मोहताज नहीं है। वर्तमान समय में पत्र-पत्रिकाओं, टी.वी., समाचार-पत्रों व सोशल मीडिया पर भी सर्च किया जा सकता है।
सांगलिया धूणी सीकर से जोधपुर सड़क मार्ग पर खूड़ व लोसल कस्बे के बीच में बामणी तलाई, जहाँ पर बाबा खींवादास स्नातकोतर (पी.जी.) महाविद्यालय संचालित है, यहाँ से 4 किमी. दक्षिण में सांगलिया ग्राम में स्थित है, सीकर जिले से लगभग 35 किमी. दूरी पर है। यहाँ पर जयपुर, जोधपुर, दिल्ली से चलने वाली परिवहन निगम व निजी बसें हर 15 मिनिट में मिल जाती हैं।
सांगलिया धूणी आज से लगभग 350 साल पहले सांगा बाबा (स्वांग) आये थे। उनके नाम से ही सांगलिया ग्राम का नाम पड़ा। लेकिन धूणी माता की स्थापना व यहाँ पर लोगों को चमत्कार दिखाने को कार्य सर्वप्रथम बाबा लकड़दासजी ने ही किया था।
सांगलिया धूणी पूरे भारतवर्ष में अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए है। यहाँ पर कदम रखते ही मानसिक व शारीरिक रूप से टूटे लोग जो पूर्ण आस्था रखते हैं, यहाँ बहुत ही सुकून मिलता है। अपने आप में एक अलग ही अनुभूति होती है।
आश्रम के अन्दर धूणी माता लक्कड़ेश मंगलेश मंगलदासजी का बंगला जहाँ आरती होती है। इसमें 5 समाधियाँ हैं। मंगलदास जी, लकड़दास जी, दूलदास जी, मानदास जी की समाधियाँ स्थित हैं।
इसके पश्चिम की ओर बरामदे में दक्षिण दिशा से बाबा बंशीदास जी की समाधी व मूर्ति, भगतदास जी की समाधी व मूर्ति जिनको वर्तमान पीठाधीश्वर ओमदास जी महाराज ने सन् 2018 में स्थापना करवाई। मौजीदास जी महाराज की चरण पादुका, बाबा खींवादास जी महाराज की मूर्ति व समाधि तथा लादूदास जी महाराज की मूर्ति स्थापित है।
इनके नैनृत्य कोण में गुफा बनी हुई है जिसमे पीठाधीश्वर साधु बाबा तपस्या किया करते हैं। इसके उतर में कुम्भदास जी महाराज व शंकरदास जी महाराज की समाधियाँ हैं। पास में ही हरिदास जी महाराज व अघोरी बाबा की समाधी है।
आश्रम के पश्चिम में खाना बनाने के लिए रसोई भी है। जहाँ पर 24 घंटे चूल्हे चालू ही रहते हैं। इसके पास में ही मीठे पानी का कुँआ व ट्यूबवेल बनी हुई है।
उतर के बरामदे में शिवजी महाराज, गणेशजी महाराज व हनुमानजी का मन्दिर है।
पश्चिम की ओर सिंचित क्षेत्र में एक तरफ पुरुष व एक तरफ महिला स्नानघर व शौचालय बने हुए हैं। धूणी माता के अधीन 20 बीघा व 40 बीघा दूसरे स्थान पर जिसको जीण बोले हैं, कृषि फार्म बने हुए हैं।
वर्तमान में आरती की जिम्मेदारी बलदू बाबा (रूपदास जी) व भभूत देने का कार्य भोलदास जी महाराज करते हैं।
यहाँ पर काम करने वाले प्रत्येक सदस्य अपनी जिम्मेदारी पूर्ण निष्ठा व सेवा भाव से करते हैं।
यहाँ बाबा लकड़दास गौशाला बनी हुई है। जिसमें काफी गायें हैं व सांगलिया ग्रामवासियों व आस-पास के गाँवों के लोग बहुत अच्छा सहयोग कर रहे हैं।
आदू धाम धण्या की दरगा, सांगल्यो है गाँव।
सायब एक सकल में व्यापे लक्कड़ स्वामी नाँव॥
यह औघड़ पंथी आश्रम है। इसको सरयंग/सर्वांगी भी कहते हैं। जिसका अर्थ कुछ भी खा लेना या प्राणी मात्र को एक समझना है।
सांगलिया धूणी पर जो जन सैलाब व जनकल्याणकारी कार्य देखने को मिल रहा है। सर्वप्रथम बाबा खींवादास जी महाराज ने शुरुआत की। इनसे पहले लोग सांगलिया वाले बाबा के नाम से डरते थे। हर कोई इनके नजदीक भी नहीं आता था। इस डर को बाबा खींव ने जगह-जगह सत्संगों के माध्यम से व अपने औजपूर्ण व मधुर वाणी से बहुत ही सरल तरीकों से समझाकर लोगों को जोड़ने का कार्य किया।
त्रिविध ताप से जूझ रहे लोगों को अपने आशीर्वचनों के माध्यम से दूर किया जिनके कारण इस आश्रम में भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में रह रहे लोगों में पूर्ण आस्था व विश्वास भरा हुआ है।
भारत में रह रहे लोगों में समूचा राजस्थान, पंजाब, हरियाणा दिल्ली, उतरप्रदेश, हिमाचल, आसाम, गुजरात व महाराष्ट्र के लोग यहाँ पर बड़ी श्रद्धा लेकर आते हैं व हँसते हुए जाते हैं।
सांगलिया धूणी की शाखाएँ सम्पूर्ण भारत में है।
साहेब के दरबार में, कमी काहे की नांय।
जैसी तेरी भावना, वेसा ही फल पाय॥
जो जैसी भावना लेकर आता है उसी के अनुरूप मिल जाता है। यहाँ के साधुओं में व इस आश्रम की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पीठाधीश्वर व धूणी माता के दर्शन व महाराज श्री से मिलने के लिए कोई भी एजेन्ट नहीं होते हैं। जिसके भी दु:ख दर्द हैं या महाराज श्री से बातचीत करनी होती है, सीधे मिल सकते हैं।
बड़ी-बड़ी शाखाएँ हैं, मंदिर, गुरुद्वारे, मठ व अन्य संप्रदाय की जहाँ भी शाखाएँ है ऐसा खुला वातावरण हर जगह नहीं मिलेगा। यहाँ पर हर सुविधा नि:शुल्क ही साल भर भण्डारा चलता रहता है।
पूर्णिमा, अमावस्या व चतुर्दशी (4 तिथि) को खास मेला लगता है व पीठाधीश्वर श्री सभी को अपने हाथ से मोली बाँधकर व प्रसाद देकर लाभान्वित करते हैं।
यहाँ पर मैंने देखा है कि असाध्य रोग, बांझपन, पारिवारिक समस्याओं से ग्रसित, सामाजिक बहिष्कृत लोगों, जादू-टोने के नाम से ठगे गए लोगों, नौकरी के लिए भटक रहे लोगों को, जिनकी पूर्ण आस्था है, समस्याएँ तुरन्त दूर हो जाती हैं।
सांगलिया ग्राम में बाबा लादूदास जी महाराज के सान्निध्य में सन् 1945-46 में प्राथमिक विद्यालय की नींव रखी गई थी। जिसको बाबा खींवादास जी महाराज ने उच्च प्राथमिक व बाबा बंशीदास जी महाराज ने उच्च माध्यमिक विद्यालय तक क्रमोन्नत करवाने में भूमिका निभाई।
वर्तमान समय में तो हर शहर में B.S.T.C. व B.Ed. कॉलेज संचालित हो रहे हैं। मगर आज से 20-25 वर्षों पहले डीडवाना से सीकर तक उच्च शिक्षा को केन्द्र नहीं था जिसके लिए स्वयं शिक्षित (स्कूली शिक्षा) नहीं होते हुए भी बाबा खींव ने दिल्ली जाकर महाविद्यालय की स्वीकृति करवा कर कॉलेज बनवाया। जिसको बाबा बंशीदास जी महाराज ने P.G. कॉलेज का दर्जा दिलवाकर राजस्थान के महाविद्यालयों की सूचि में खड़ा किया। कहा है-
ज्ञान को दान कियो जग माहीं, सब दानों के हितकारी।
दीन-हीन दुखियों के दाता, ऐसा पर उपकारी॥
इसके अलावा चिकित्सालय, प्याऊ, धर्मशाला आदि भी अनेकानेक बनवाए गए हैं। जिनकी देखभाल पीठाधीश्वर महाराज के अलावा ग्राम सांगलिया के गणमान्य नागरिकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
सांगलिया बगीची की वंशावली
लक्कड़दास जी महाराज (संस्थापक)
मंगलदास जी
मीठाराम जी
दूलादास जी
रामदास जी
मानदास जी
लादूदास जी
खींवादास जी
भगतदास जी
बंशीदासजी
ओमदास जी (वर्तमान पीठाधीश्वर)
सांगलपति महाराज को, बारम्बार प्रणाम।
शरणे आये संकट कटे, पूरण हो सब काम॥
लक्कड़दास जी महाराज
लोक किंवदन्तियों व जनश्रुतियों के अनुसार सर्वप्रथम सांगलिया ग्राम में बाबा लकड़दासजी ने ही आज से लगभग 350 वर्षों पर इस स्थान पर आकर आसन लगाया था। ऐसा माना जा रहा है कि महाराज फतहपुर के सिकलीगर में पैदा हुए थे।
महाराज ने बाल्यकाल से ही घर छोड़ दिया व जगह-जगह साधुओं की संगत करते हुए पंजाब राज्य के बोहर स्थान पर पहुँचे। वहाँ पर कोई साधु 12 वर्ष तक मौन धारण कर पलक लगाए बैठे थे। महाराज ने उनको देखा तो वहीं खड़े हो गए। महाराज समाधीस्थ (योग) थे व सामने धूणा जग रहा है। महाराज ने अपनी आँखें खोली तो लक्कड़ स्वामी ने कहा, महाराज मुझे कुछ देवो।
साधु ने उनकी ओर देखा और धूणी में से अग्नि उठाकर बाबाजी को दे दी तो बाबा ने अपनी चादर में अपनी शक्ति के द्वारा ऐसे बाँध ली जैसे कोई प्रसाद लेता है। वहाँ से चलकर सीधे सांगलिया में आए व धूणी माता की स्थापना की जो आज तक लगातार ज्योति जग रही है।
बाबा लक्कड़दास जी से लोग डरते थे क्योंकि ये अघोरी थे। कुछ भी खाने-पीने से परहेज नहीं होता था। मगर दु:ख-दर्द वाले को दूर से ही कहकर ठीक कर देते थे।
लक्कड़दास जी के 7 शिष्य थे जो अलग-अलग स्थानों पर जाकर जन-जन की सेवा करते रहे।
गुलाबदास जी महाराज
आपका जन्म ग्राम बिडोली (जीण माता के पास) सीकर में खाती (जांगीड़) परिवार में हुआ था। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन साधुओं की सेवा में बिताया।
जनश्रुतियों व मेघदास जी महाराज (बिठुड़ा) के अनुसार आप बचपन में लड़की थे। घर वालों ने शादी तय कर दी तो आपने घर से भागकर बाबा सांगलिया में बाबा लकड़दास जी की शरण ले ली और कहा कि महाराज मैं शादी नहीं करूँगी। तो बाबा ने एक चादर ओढ़ाकर सुला दिया। घर वाले ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब यहाँ आए और महाराज से पूछा कि हमारी बाई (लड़की) आई थी क्या? तब बाबा ने बताया यहाँ तो गुलाबदास तो जरूर है बाई नहीं है। जब उन्होंने उस चादर को हटाया तो सचमुच लड़की से गुलाबदास बन गए। दाढ़ी और मूँछ चेहरे पर उगे मिले तो महाराज ने आपको यहाँ से सीकर भेज दिया जहाँ आज जो आश्रम है वह बाबा गुलाबदास के नाम से ही जाना जाता है।
सीकर गुलाबदास जी की बगीची की वंशावली इस प्रकार रही है।
गुलाबदासजी
आत्माराम जी
हरीराम जी झोरड़ा ) नागौर जेठादास जी (डालमास) बिजादास जी (किरडोली) प्रेमदास जी (सीकर) बिरदादास जी
सुखीदास जी (भठोठ)
गुलजी बाबोजी के शिष्य
चेतनराम जी
डीडवाना के माली
(लादूदास जी के शिष्य)
मगनदास जी
सिंगरावट के माली
कानदास जी
खींवादास जी के शिष्य
मोहनदास जी
वर्तमान गदृीपति
कानदास जी के अनेक शिष्य थे, जिनमें गणेशदास जी (गुलाबदास जी) का नाम भी प्रमुख रूप से लिया जाता है। जिनका आश्रम सांभर में है।
सुत प्रकाश जी महाराज
आपका आश्रम सिंध (पाकिस्तान) में स्थित है।
बालकदास जी महाराज
रंगीलदास जी महाराज
भाव प्रकाश जी महाराज
इनके जीवन की जानकारी प्राप्त करने में असमर्थ।
मंगलदास जी महाराज
मंगलदास जी महाराज का जन्म डीडवाना तहसील के ग्राम फोगड़ी में अमर सिंह जी व माता लाड़ कंवर के घर में में लगभग 200 वर्षों पहले लाडखानी राजपूत परिवार में हुआ।
जनश्रुतियों के अनुसार सम्पन्न परिवार होते हुए भी आपकी माताजी साधुओं की सेवा में लगी रहती थी। आप लगभग 16 साल की उम्र में ही जोधपुर दरबार में नौकरी करने लग गये। बात-बात में साथियों के द्वारा मजाक में मंगलदासजी को कह दिया कि आप राजपूत हो आपकी माँ स्वामियों के साथ रहती हैं। इस बात को लेकर मंगलदास जी महाराज घोड़े पर सवार होकर माँ को मारने की नीयत से अपने घर आये। मगर घर में आकर देखा कि माँ को किसी और ने ही मार दिया है, तो वापस मुड़ते ही माँ की आवाज आई। आवाज सुनकर महाराज वापस मुड़ते हैं, तो माँ सामने खड़ी है। इस दृश्य को देखकर आपने माँ के पैर पकड़ लिये और माँ से कहा कि आप वाला मार्ग बताओ। तो माँ ने कहा कि यह बर्तन लेकर जाओ और गाँव से माँगकर लाओ, कोई घर वंचित नहीं रहे।
मंगला माया त्याग दे, हांडी ले ले हाथ।
वर्ण छतीसो मांग ले, मत पूछ जे जात॥
मंगलदास जी ने पूरे गांव में फेरी लगाई मगर एक घर को छोड़ दिया। घर आने पर माँ ने कहा कि बेटे अभी कच्चे हो एक घर छोड़ दिया।
मंगला हांडी उतम है, नहीं धोने का काम।
खाय कर उंधी (उल्टी) मार दे, निर्भय रट ले राम॥
उसी दिन से मंगलदास जी महाराज सांगलिया में आकर रहने लगे व पूरा जीवन भक्ति में लगाकर जीवन सफल बना लिया। जिनकी समाधी धूणी पर स्थित है, वहीं से आरती होती है।
वर्तमान पीठाधीश्वर बाबा ओमदास जी द्वारा इसका जीर्णोद्धार करके एक नया ही रूप दिया गया है जो अपने आप में एक बेजोड़ नमूना है।
मीठाराम जी महाराज
मीठाराम जी का जन्म लोसल के पास ग्राम भीराणा में शेखावत राजपूत के घर में जन्म लिया। आपने सेवा भावना व पशु प्रेम, सभी को एक समान जानकर बाबा की सेवा की जिसके कारण लक्कड़दास जी महाराज के शिष्य बन गए।
मंगलदास जी महाराज के पीठाधीश्वर रहते आपने अपने गुरु भाई को पूर्ण सहयोग दिया। मंगलदास जी के शिष्य नहीं होने के कारण उनके बाद आपको चादर दी गई। आपने भजन भी बनाए जिनमें प्रचलित भजन-
- चाल सखी सत्संग में चालां, सतसंग में सत गुरु आसी।
सतगुरु शरणे होज्या दीवानी, नहीं तो परले बह जासी॥
- आ जायली, खा जायली, पड़ी रहे परी जायली।
हालो तो गुरु वचना हालो, नहीं तो पाछी आजायली॥
दुलादास जी महाराज
दुलादास जी का जन्म सांगलिया ग्राम में जांगिड़ (खाती) परिवार मे हुआ। आपने बचपन से ही सत्संग व भजनों में रुचि बना ली। लगभग 20 साल की उम्र में आपने बाबा मीठाराम जी की शरण लेकर उनके शिष्य बन गए तथा बाद में आपने सांगलिया धूणी के पीठाधीश्वर पद को सुशोभित किया। आपकी समाधी लकड़ेश-मंगलेश बंगले में ही स्थित है।
रामदास जी महाराज
रामदास जी महाराज का जन्म झुंझुनूं जिले के नवलगढ़ तहसील में ही सोटवारा के जोगी परिवार में हुआ था। आप बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृति के थे। फिर बचपन में ही आपने सांगलिया की सुध लेकर साधुओं की सेवा में लग गए।
एक बार गाँव से कहीं जा रहे थे। दूर-दूर तक गाँव भी नहीं हुआ करते थे। सुनसान जंगल में एक सिंह मिल गया। सिंह ने अपना शिकार समझकर महाराज रामदास जी को खाने के लिए छलांग लगाई तो महाराज के पास तलवार थी। एक ही वार में शेर की गर्दन उड़ा दी। जो आज सोटवारा में मौजूद है। रामदास जी महाराज ने दुलादास जी महाराज के समाधिस्थ होने के बाद पीठाधीश्वर के पद को सुशोभित किया। आपकी समाधी नवलगढ़ में है।
मानदास जी महाराज
मानदास जी महाराज का जन्म जयपुर से सीकर के बीच रींगस ग्राम के पास मेहरोली में राजपूत परिवार में हुआ। चूंकि उस समय समाज की सभी जातियों में राजपूत समाज ज्यादा सम्पन्न हुआ करता था। मगर आपने राजसी आन-बान की परवाह किये बगैर बचपन से ही ज्ञान प्राप्ति के लिए घर छोड़ दिया। कई स्थानों पर घूमते-घूमते सांगलिया में आए तो रामदास जी महाराज से मुलाकात हो गई व उनके आचार-विचार भावों की प्रधानता को देखते हुए महाराज रामदास जी के परम शिष्य बन गए।
महाराज के समाधिस्थ होने के बाद साधू समाज ने आपको सांगलिया पीठाधीश्वर पद पर आसीन किया व बहुत ही योग साधना व बहृमा विचारों से दीन-दुखियों की सेवा की।
मानदास जी महाराज के शिष्य
लादूदास जी महाराज
लादूदास जी महाराज के पिताजी मकराना तहसील के एक छोटे से ग्राम अमरसर (जिवादिया) में पैदा हुए व सीकर जिले की कुण्डल की ढाणी में जीवन बिताया। तथा आपके पुत्र लादूदास जी ने सांगलिया धूणी में बाबा मानदास जी महाराज के सान्निध्य में जीवन बिताया व पीठाधीश्वर पद को सुशोभित करते हुए शीतल मूर्ति बनकर बाबा खींवादास जी महाराज पर पूर्ण कृपा करके अपने जैसा स्वरूप दिया। कहा है-
अपने संग भृंग लट करे, शब्द सुणादे गुंजार।
पर पाखा भवरो भयो, उड़ गयो भंवरा के लार॥
महाराज ने अंग्रेजों के जमाने में ही प्राथमिक विद्यालय, अस्पताल व 4 कुँओं का निर्माण करवाया। श्री लादूदास जी महाराज का देवलोकगमन फाल्गुन कृष्ण एकम् संवत् 2022 दिनांक 6 फरवरी 1966 रविवार के दिन हुआ। तथा आपकी बरसी माघ पूर्णिमा को मनाई जाती है। आपके देवलोगमन पर आपके शिष्य श्यामाराम जी ने कहा-
फागण बदी एकम को, आठ बजे भयी शाम।
कंवल फूल अवतारी पूग्या, अटल अविचल धाम॥
अटल अविचल धाम, गगन घर किया पियाणा।
प्रेम घटा गई छाय, महिमा घर जोया निशाणा॥
सुदी दूज दर्शन भया, नौ खण्ड भयी आवाज।
दशवां पर आसन किया, श्री सांगलपति महाराज॥
टोडदास जी महाराज
इनका आश्रम कुचामन में स्थित है।
गोमजीलाट
इनका आश्रम नवलगढ़ (झुंझुनूं) में स्थित है।
मौजीदास जी महाराज
मौजीदास जी महाराज का जन्म डीडवाना तहसील के ग्राम खाखोली में तिलोकचन्द जी व माता श्रीमती दल्लू देवी की कौख से विक्रम सम्वत् 1958-59, भाद्रपद शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी (तेरस) के दिन जांगिड़ परिवार में हुआ।
आपके बचपन का नाम हीरालाल था जिसका अर्थ हीरा और लाल यानि कीमती रत्न होता है।
बचपन से ही आप जिज्ञासु प्रवृति के थे व अपनी मर्जी से ही कोई कार्य किया करते थे। बाल्यकाल में ही आपकी शादी हो चुकी थी व डीडवाना के पास दौलतपुरा ग्राम में आपका ससुराल था। आप गृहस्थ जीवन बीताते हुए प्रभु के ध्यान में मस्त रहा करते थे व मनमौजी प्रवृति के कारण ही आपका नाम मौजीदास पड़ा।
वैराग्य जब अपनी चरम सीमा पर होता है तो राज-पाट, धन-धाम, घर-परिवार सबका त्याग हो जाता है और आपने भी वैसा ही किया। सबको त्याग कर मनमौजी बन गए और सांगलिया धूणी आकर बाबा मानदास जी महाराज के शिष्य बन गए। आपने अपनी योग व ध्यान साधना के द्वारा हजारों परचे दिए, कई लोगों को जीवन दान दिया। आपने सांगलिया धूणी पर अल्प समय के लिए पीठाधीश का पद भी संभाला और आपने सांगलिया के पड़ौसी ग्राम अड़कसर में अपनी तपोभूमि बनाई। जहाँ पर आज भी बहुत ही भव्य आश्रम बना हुआ है व हजारों श्रद्धालु आपकी समाधी पर माथा टेकने आते हैं।
धन्य है, ऐसे महापुरुषों को जिन्होंने संसार की भौतिकवाद व वासनाओं से मुक्त होकर अपने जीवन के साथ-साथ हजारों लोगों को नई दिशा दी। आपके नाम से आज भी लोगों के कार्य सिद्ध होते हैं जो सच्चे भाव से आपका स्मरण करते हैं।
अड़कसर बगीची की वंशावली
मानदास जी महाराज-सांगलिया धूणी के शिष्य
मौजीदास जी
गिरधारीदास जी
उदादास जी
सांवलदास जी
पूसादास जी वर्तमान गदृीपति
लादूदास जी के शिष्य
- जीयादास जी महाराज ने खिंचन जो नागौर से फलौदी मार्ग पर है, वहाँ पर तपोभूमि बनाई।
- चूनाराम जी महाराज ने ग्राम रूल्याणी (नेछवा) सीकर में स्थान बनाया, जहाँ पर आज भी हजारों श्रद्धालु आते हैं।
- श्यामाराम जी – ग्राम मावा में आपने जन्म लिया। पूरा समय भजन वाणी व साधुओं की सेवा में बिताया। बाबा खींवादास जी महाराज के परम सहयोगी रहे। मावा ग्राम में आपकी समाधी जहाँ बगीची है स्थापित की गई है। यहाँ पर भी मेला भरता है।
- कुंभदास जी – महाराज का जन्म ग्राम खूड़ (सीकर) मे मेघवाल परिवार में हुआ। आपके भी बहुत सारे पर्चे लोगों द्वारा सुने जा सकते हैं। आपकी समाधी सांगलिया धूणी में ही है।
- भोमदास जी महाराज ने सांगलिया धूणी से जाकर डूंगरगढ़ में नया ग्राम बसाया जिसका नाम भौम नगर है।
- शंकरदास जी – दांतारामगढ़ के पास सुल्यास (सुलियावास) में आपने जन्म लिया। आपने सांगलिया बगीची में खूब सेवा की। आपकी एक विशेषता थी कि आप हमेशा अपनी दैनिक चर्या को एक डायरी में लिखते थे जो आज भी महाराज श्री के पास मौजूद है।
- अघोरी बाबा
बचपन का नाम चैताराम था। लोसल के नजदीकी ग्राम भीराणा में रणवां (जाट) गौत्र में पैदा हुए थे। आपके बारे में सुनने में मिला है कि खाना खाते वक्त सारे घर के खाने से भी तृप्त नहीं होते थे। घर वाले परेशान हो गए तो एक दिन लादूदास जी महाराज ग्राम में आए तो आपके पिताजी ने बात बताई कि महाराज यह बालक खाने के लिए कभी मना करता ही नहीं है तो महाराज ने कहा कि मेरे साथ भेज दो। आप सांगलिया में रहते हुए बहुत ही वचन सिद्ध हो गए। संयोग वश आप ग्राम में आप आपके भतीजे की बहु ने एक बालक जो बीमार था, लाकर महाराज के सामने सुला दिया और कहा कि महाराज ठीक करो तो महाराज ने कहा कि यह तो नहीं जी सकता मगर जो बालक दूसरा जन्मेगा वह खूब रुपये कमाएगा।
गौरतलब है कि शेखावाटी ग्रुप के चेयरमैन श्रीमान् बी.एल. रणवां के दादा के भाई अघोरी बाबा जिनके आशीर्वाद से आज आपके मौज ही मौज है। अघोरी बाबा की समाधी सांगलिया धूणी में ही है।
चेतनदास जी (माली) डीडवाना
रामेश्वरदास जी (माली) डूंडलोद
बाबा खींवादास जी महाराज
बाबाजी का जन्म नागौर जिले की लाडनूं तहसील में ग्राम बिठुड़ा में भाद्रपद शुक्ल पक्ष पूर्णिमा संवत् 1996 सन् 1939 को खुमाराम व चौथी देवी (माता-पिता) के घर हुआ। आप एक देदीप्यमान, महान् भाग्यशाली, परमात्म स्वरूप के रूप में प्रकट हुए।
आपकी जितनी महिमा कही जाए उतनी की कम ही है। स्वयं भगवान अपने अवतार के रूप में प्रकट होकर खींव के नाम से अवतरित हुए। खुमाराम जी बीदस्या (बीदावत) शुरू से ही सांगलिया धूणी से जुड़े हुए थे तो पुत्र रत्न होने पर महाराज लादूदास को अपनी प्रिय वस्तु भेंट करना चाहते थे। कई बार विचार मंथन के बाद बाबा ‘ खींव ‘ जो बालक थे उनको ही महाराज के चरणों में भेंट कर दिया।
दर्शन कर प्रसन्न भए, साहेब सत बोहरंग।
खींवा कबहु न छोडि़ए, सतगुरु जी का संग॥
धन्य हो ऐसे माता-पिता, जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े को साधु बाबा के चरणों में अर्पित कर जीवन सफल बना लिया। बाबा खींव शीतल मूर्ति, विद्वान, भजनों के रचयिता जिनको सरल तर्ज में गाया जा सकता है व स्वयं भी बहुत ही मधुर ऊँची राग में गाकर जन-जन को लाभ पहुँचाया व एक नई तर्ज देकर नाम अमर कर लिया। स्वामी जी के मुखारबिन्द से निकले एक-एक शब्द ही बेसकीमती थे। जिसने उनको समझा व अनुसरण कर लिया, उनके सभी मार्ग खुल गए।
योग युगत से साजिए, कर दिल अपना साफ।
सत्य साहेब का नाम है, जपिये अजपा जाप॥
जपिये अजपा जाप, आप में आप समावे।
तू तेरे को जाण, जीव मुक्ति पद पावे॥
जहां हंसा निर्भय रहो, सदा आनन्द अरोग।
खींवा सतगुरु देव से, मिला पूरब संयोग॥
महाराज श्री हर बात में मानव जाति व सम्पूर्ण विश्व बहृमाण्ड व प्राणी मात्र को एक ही सत्ता या ब्रह्मा के अंश मानकर समझाया करते थे। आज भी हर जगह जो उनके भक्त हैं उनके घर पर महाराज के भजनों की रिकॉर्डिंग मौजूद है व जनसाधारण की समझ में जल्द ही आ सकते हैं।
महाराज श्री ने अशिक्षा को दूर करने के लिए भजनों के माध्यम से व भजनों की व्याख्या में लोगो को समझाकर शिक्षित बनने के लिए प्रेरित किया व पाखण्डवाद, ढोंग, अन्धविश्वास को दूर भगाने में खूब योगदान किया। जिसने एक बार ही सत्संग सुनी वो अपने जीवन में कभी नहीं भूल सकता।
जागो भारत के नर नारी रे,
कुकर्मा ने छोड़, शिक्षा लेवो गुरांरी रे।
आपने सभी सम्प्रदाय के लोगों को आश्रय प्रदान किया व उनका सत्कार करके सर्वधर्म सम्प्रदाय का परिचय दिया। आपके मुखारबिन्द से-
हम सरभंगी, सबके संगी, मेट दिया झोड़ तमाम।
छुआछूत का भ्रम हटाया, कर दिया चक्का झाम॥
यदि इस आश्रम में सभी धर्म व सभी जातियों को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य किया जो कि भारतवर्ष में अन्यत्र नहीं मिल सकता।
महाराज श्री ने कॉलेज बनवाकर न केवल अपना नाम अमर किया बल्कि दूर-दराज इलाकों के गरीब परिवारों के बालकों की शिक्षा का इन्तजाम किया जिससे हजारों बालक/बालिकाएँ लाभान्वित होकर रोजगार के क्षेत्र में शामिल हुए हैं। कॉलेज के साथ-साथ छात्रावास व अनुसंधान केन्द्र भी बना हुआ है। स्वामी जी ने इतना ही नहीं बल्कि गरीब, असहाय लोगों को आर्थिक सहायता करके भी शादी-विवाह, रोग के ईलाज के लिए भी सहायता करते हैं।
आपकी देश सेवा, प्रेम, समाज सेवा, शिक्षा, भजन, वाणी तथा शिक्षा केन्द्र खोलने के कारण 24 दिसम्बर, 1998 को दिल्ली में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के द्वारा अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। देश में साधुओं की या भगवाधारियों की एक कतार बना दी जाए तो सम्पूर्ण राजस्थान के चारों तरफ घेरा बन सकता है। मगर इतनी भीड़ में से राष्ट्रपति द्वारा एक साधु को सम्मानित करना अपने आप में गौरव की बात है।
अनेकानेक क्षेत्रों में कार्य करते हुए व मानवता की सेवा करते हुए जन्माष्टमी के दिन 12 अगस्त, 2001 को लाखों लोगों को रोते-बिलखते छोड़कर ब्रह्मलीन हो गए।
आप भले ही स्थूल रूप से इस दुनिया में न हो मगर भक्तों के दिलों में आज भी आप अपना स्थान बनाए हुए हैं।
सांगलपति महाराज हो, बाबा खींवादास।
अवतारी महापुरुष भये, सुमरे जिनके पास॥
पद पाया निर्वाण, मिटाय जाति कारणे।
पल-पल मदन की वीनती, थे आवो म्हाने तारणे॥
आपकी जन्मभूमि बिठुड़ा में दो आश्रम बने हुए हैं जिनमें मेघदास जी व प्रतापदास जी गद्दीपति के रूप में सेवाएँ दे रहे हैं।
हरीदास जी महाराज
हरीदास जी महाराज का जन्म चक रोहिड़ा में हुआ। आपके पिताजी का नाम दुर्बलनाथ जी व माता का नाम प्रेमनाथ था। दोनों ही नाथ सम्प्रदाय से जुड़े हुए थे और इन दोनों की समाधी सांभर में स्थित है। एक बार बाबा लादूदास जी महाराज के सम्पर्क में आने पर आपने इनको गुरु मान लिया और बाबा खींवादास जी महाराज के साथ ही जीवन बिताया। आपकी समाधी सांगलिया धूणी में है।
केवलदास जी गोठड़ा
खींवादास जी महाराज के शिष्य
- श्री श्री १००८ श्री भगतदास जी महाराज
महाराज का जन्म सीकर जिले की नीमकाथाना तहसील के पास पंचलंगी ग्राम में श्री मुखराम जी मेघवाल व श्रीमती नाथी देवी के घर हुआ। बाल्यकाल से ही आपकी प्रवृति साधु-सेवा में थी। अत: 14 वर्ष की उम्र में ही आप गृह त्याग कर सांगलिया धूणी आ गए।
आपके पिताजी का चण्डीगढ़ में अखाड़ा (कुश्ति-दंगल) था। महाराज शंकरदास जी एक बार वहाँ गए। उनके साथ यहाँ आकर आप रात-दिन एक करके साधुओं की सेवा की व बाबा खींवादास जी महाराज के परम शिष्य बन गए।
आपको पशुओं से भी बहुत ज्यादा लगाव था, जिसके कारण हमेशा गायों की सेवा किया करते थे। साथ ही साथ आपको भजन गायन का भी बहुत शौक था। सेवा भावी भावना के कारण महाराज श्री के रहते हुए धूणी माता पर आरती का पूरा जिम्मा आपने ही संभाल रखा था।
सन् 2001 अगस्त माह की 12 तारीख को बाबा खींवादास जी महाराज के समाधीस्थ होने के बाद आपको पीठाधीश्वर पद मिला। जिसका बखूबी से पालन करते हुए जनसेवा की व सभी भक्तजनों के दिलों में स्थान बना लिया।
आप 4 फरवरी, 2004 को बहृमलीन हो गए व 5 फरवरी, 2004 को समाधी दी गई। जिस पर वर्तमान पीठाधीश्वर बाबा ओमदास जी महाराज ने फरवरी 2018 में मूर्ति स्थापना कर चिरस्थाई यादगार बना दी है।
- श्री श्री १००८ श्री बंशीदास जी महाराज
स्वामी जी का जन्म खाटू श्यामजी व रींगस के बीच ग्राम लाम्पवा में श्री घासीराम जी बरवड़ व माता श्रीमती ग्यारसी देवी के घर 12 अक्टूबर, 1974 को हुआ।
बाल्यकाल ग्राम लाम्पवा में बीताकर लगभग 18 वर्ष की अल्पायु में ही बाबा खींव के चरणों में अपने मन को लगा दिया व पूर्ण समर्पण के भाव से सेवा की।
आपने कलाकारों, संगीत प्रेमियों, सत्संग प्रेमियों का आदर सत्कार कर मन को जीत लिया। दीन-दु:खियों, गरीब-असहाय लोगों की सेवा की। शुरू से ही आपने अपने कोकिल कंठ से गायकी करके प्रसिद्धि प्राप्त की व रात-दिन महाराज खींवादास के आदेशों की पालना की। बाबा खींव के दूसरे शिष्य के रूप में आपने फरवरी, 2004 में पीठाधीश्वर अखिल भारतीय सांगलिया धूणी को सुशोभित किया।
सांगलपति महाराज हो, सारण सबके काज।
बंशी निज अरजी करे, दु:ख मेटण महाराज॥
पीठाधीश्वर पद पर रहते हुए आपने लाखों लोगों के दु:ख दर्द को सुना व उनकी हर संभव सहायता की व अपने आशीर्वचनों द्वारा रोगों से मुक्ति दिलाकर जीवन को धन्य किया। आपके चेहरे का इतना तेज था कि कोई भी व्यक्ति आपसे नजर नहीं मिला सकता था व जो बात कह दी उसको कोई टाल नहीं सका। इतनी शक्ति गुरुदेव व धूणी माता से प्राप्त की।
बाबा बंशीदास जी महाराज जिन्होंने अपने औजपूर्ण वाणी के द्वारा दूसरे सम्प्रदायों के लोग व साधू जो सांगलिया वालों से दूरी बनाये रखते थे व ऐसा भी सुनने में आता था कि सांगलिया वालों को सत्संग का ज्ञान नहीं है। उन लोगों को बाबाजी ने अपनी मधुर वाणी के द्वारा भजनों के माध्यम से सांगलिया सम्प्रदाय को मानने के लिए मजबूर कर दिया।
महाराज श्री ने बाबा खींव की तरह ही अपने आशीर्वचनों के द्वारा रोग ग्रस्त व अन्य प्रकार की बाधाओं से ग्रसित लोगों को लाभान्वित कर जीवन को धन्य किया।
जिस असाध्य रोग को डॉक्टर ठीक नहीं कर सके, उनको बाबा खींव की तरह ही बंशीदास जी ने साध्य बनाकर जन-जन के दिलों में स्थान बना लिया।
महाराज श्री ने राजस्थान में ही नहीं अपितु राजस्थान के बाहर हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, आसाम तक जाकर अपनी वाणी व आशीर्वचनों के द्वारा लोगों को शारीरिक, आर्थिक व मानसिक रूप से धन्य किया।
सतगुरु के दरबार में, जाइये बारम्बार।
भूली वस्तु बतायदे, सतगुरु है दातार॥
महाराज जी ने कॉलेज के सौन्दर्यकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी तथा बीचली बगीची के नाम से कॉलेज व बाबा लक्कड़दास आश्रम के बीचों बीच यात्रियों के ठहरने हेतु एक विशाल एवं भव्य आश्रम का निर्माण करवाया।
स्वामी जी द्वारा बनवाये गये कॉलेज को बाबा बंशीदास जी ने गुरु कृपा से स्नातकोतर का दर्जा दिलाया।
महाराज खींवादास जी के अन्य शिष्य– गणपतदास जी (मुकुंदगढ), प्रेमदास जी (तालछापर), कानदास जी (सीकर), साँवलदास जी (अड़कसर), सांवलदास जी (सुजानगढ़), बाबूदास जी।
बंशीदास जी महाराज के शिष्य
श्री श्री 108 श्री ओमदास जी महाराज
ओमदास जी महाराज का जन्म नागौर जिले की डीडवाना तहसील में बरड़वा ग्राम में 11.11.1991 को श्री नारायण राम मेहरड़ा जी व माता श्रीमती यशोदा देवी के घर हुआ।
कुण्डलियाँ
कार्तिक शुक्ल तिथि पंचम, दिनांक ग्यारह होय।
दो हजार अड़तालीस, विक्रम संवत् जोय॥
विक्रम संवत् जोय, माह नवम्बर दिन सोम।
जन्म भौम बरड़वा, नाम धरायो है ओम॥
सन् है उन्नीस सौ, वत्सर नब्बे और इक।
‘मदन’ जन्म आपका, उतम ज्यों माह कार्तिक॥
वत्सर-वर्ष
नब्बे और इक-91
छ: भाई-बहिनों में आप दूसरे नम्बर पर होने के कारण बचपन से छोटे बहिन-भाइयों से ज्यादा लाड़-प्यार मिला। मगर आपने अपना बाल्यकाल माता-पिता के साथ गाँव से बाहर बिताया। क्योंकि आपके पिताजी राजकीय सेवा में सेवा देने के कारण प्रारम्भिक शिक्षा मौलासर (नागौर) में सम्पन्न हुई। इसके बाद आपने सांगलिया, जोधपुर, बरड़वा, सुदरासन और बेरी में कक्षा 12 तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद कॉलेज शिक्षा बाबा खींवादास महाविद्यालय से स्नातक सन् 15-16 में प्रथम श्रेणी से उतीर्ण कर महाविद्यालय में नाम रोशन किया। बाल्यकाल से ही आपके विचार आपकी सेवा भावना को देखते हुए आपके पिताजी ने बाबा खींवादास जी महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। बाबा बंशीदास जी के प्रिय शिष्यों में आपका नाम सर्वोपरि है।
आपने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद से सांगलिया धूणी में रहने लग गए जिसके कारण आपमें सेवा भावना, सत्संग प्रेम, दूर-दूर के लोगों से जानकारी होने लग गई। 2001 में बाबा बंशीदास जी महाराज के पीठाधीश्वर पद संभालने के बाद आपने पूर्ण समर्पण के साथ बाबाजी के साथ एक साये की तरह रहे। चाहे कहीं कार्यक्रम हो, सत्संग हो या आश्रम आपने हमेशा ही महाराज श्री के आदेश का पालन किया।
महाराज की अनुपस्थिति में भी आपने यहाँ पर आने वाले यात्रियों, आरती, खेती, पशुओं व अन्य सम्बन्धित कार्यों का प्रभार संभाल कर अपनी योग्यता का परिचय दिया। इतनी पूर्ण निष्ठा व सेवा भावना के कारण बंशीदास जी महाराज के परम शिष्य बन गए।
इसी सेवा भावना एवं योग्यता को देखते हुए सांगलिया ग्रामवासियों तथा सन्त महापुरुषों ने फरवरी 2017 में अखिल भारतीय सांगलिया धूणी को पीठाधीश्वर पद की जिम्मेदारी सौंपी गई।
सोरठा-
ओम सम ओमदास, पीठाधीश्वर पद पाय।
पूरण भयो प्रकाश, मौजां कर दी मदन सा॥
आप अखण्ड अपार, आप हो अन्तर्यामी।
सबका सरजनहार, आपणां ओमदासजी॥
बामनी तलाई से अड़कसर, जहाँ पर लाखों श्रद्धालुओं की भावना व सुविधा को देखते हुए तुरन्त सड़क बनवाई। जिसके लिए बहुत-बहुत साधुवाद।
सन् 2018 जून माह में स्नातकोतर महाविद्यालय में विज्ञान संकाय खुलवाकर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान किया है।
बगीची का बरामदा जहाँ समाधियाँ हैं, पलस्तर तुड़वाकर कांच की मीनाकारी कार्य करवाया जो अपने आप में बेजोड़ नमूना है। इसके साथ-साथ लक्कड़दास जी, मंगलदास जी का बंगला जहाँ आरती होती है, उस पर भी सुन्दर कार्य करवा कर चार चाँद लगा दिए।
इसके साथ-साथ आपने बाहर की तरफ इमली वाले मैदान में ब्लॉक लगवाकर मैदान की सुन्दरता को बढ़ा दिया है, सभी यात्रियों के लिए आरामदायक स्थान बना दिया।
इसके साथ-साथ आपने दीन-दु:खियों की आवाज को सुनकर आपके आशीर्वचनों से भी बहुत सारे लोगों को ठीक कर दिलों में अपना स्थान बना लिया है।
मैं गुरु साहेब से प्रार्थना करता हूँ कि आपने लगभग 17-18 माह में ही इतने कार्य कर दिए जो साधारण व्यक्ति पूरी जिन्दगी में ही नहीं करता। इसी प्रकार हमारा ( भक्तजनों का ) जीवन सजाते संवारते रहें।
हाल ही में 29 व 31 जुलाई 2018 को नि:शुल्क नैत्र चिकित्सा शिविर लगवाकर सैकड़ों लोगों की रोशनी दिलवाई जो परोपकार का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
ओम को स्वरूप देख मेरे मन हर्ष भयो,
कृष्ण ही अवतार धर, सांगलिया में आयो है।
पूर्व के जन्मों का सार, सतपुरुषों के लागे लार,
गुरुजी को हाथ सिर पर धरायो है॥
बाबा बंशीदास जी के परम शिष्य ओमदास,
सेवा, शिक्षा, नशामुक्ति अभियान को चलायो है।
मदन है चरणों की धूल, रति भर मत जाजो भूल,
अनाथों के नाथ ‘ओम’ पीठाधीश पद पायो है॥
श्री श्री 108 श्री ओमदास जी
महाराज की शिक्षाएँ
अखिल भारतीय सांगलिया धूणी के पूर्व पीठाधीश्वर श्री श्री 1008 श्री बंशीदास जी महाराज के परम शिष्य श्री ओमदास जी महाराज ने पीठाधीश्वर पद संभालते ही महाराज के पदचिन्हों पर चलते हुए बाल विवाह, शराब, कन्या भ्रूण हत्या, सफाई अभियान, वृक्षारोपण, सामाजिक कुरीतियाँ, शिक्षा, पर्यावरण नीति तथा अध्यात्म सम्बन्धित विषयों पर अपने सुविचार प्रकट कर विभिन्न छन्दों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने का महान पूण्यार्थ का कार्य किया है। जो इस प्रकार हैं-
दोहा छन्द
यह अर्द्धसम मात्रिक छन्द है।
इसके विषम चरणों में 13-13 मात्राएँ तथा सम चरणों में 11-11 मात्राएँ होती हैं। कुल 24 मात्राएँ होती हैं।
मात्रा – अ, इ, उ, ऋ, ँ (चन्द्रबिन्दु) की लघु मात्रा मानी जाती है तथा आ, ई, ऊ, ए, ऐ, औ, अं, अ: की गुरु मात्रा गिनी जाती है। यदि किसी हृस्व स्वर के तुरन्त बाद कोई आधा अक्षर/संयुक्ताक्षर/ हलन्त वर्ण तथा विसर्ग हो तो वहाँ गुरु मात्रा का प्रयोग किया जाता है।
लघु मात्रा को एक मात्रा (। ) गिना जाता है तथा दीर्घ मात्रा को दो मात्रा गिना जाता है तथा दीर्घ मात्रा ‘ऽ’ की तरह लिखी जाती है।